सामाजिक समता का पर्व - होली
हिन्दू धार्मिक-सांस्कृतिक परम्परा में पर्वों एवं त्योहारों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। ये पर्व एवं त्योहार धार्मिक एवं सामाजिक आयोजन मात्र न होकर भारत के इतिहास में हमें ले जाने के महत्त्वपूर्ण माध्यम भी हैं। किसी भी राष्ट्र की समृद्धि और वैभव का मूल उसके अतीत में छुपा होता है, जिस पर वह राष्ट्र और उसका समाज गौरव की अनुभूति कर सकता है। होली का पर्व इसी महान परम्परा से जुड़ा सामाजिक समता का पर्व है। सम्पूर्ण विश्व में तथा भारत के अन्दर जन्मी सभी उपासना पद्धतियों के अनुयायी जिस उत्साह, उमंग एवं जोश के साथ बिना भेदभाव के इस पर्व को मनाते हैं, वह सचमुच विभिन्न सामाजिक कुरीतियों तथा आपसी मतभेद एवं वैरभाव को समाप्त करने की प्रेरणा भी प्रदान करता है। यह पर्व जहाँ सामाजिक समता का सन्देश देता है वहीं ‘भक्ति में शक्ति’ का दर्शन भी करवाता है। भगवान् विष्णु के नौ अवतारों में नृसिंह अवतार से भी यह पर्व जुड़ा है। अत्याचारी, अन्यायी चाहे कितना ही शक्तिशाली और बलशाली क्यों न हो, उसका अन्त सुनिश्चित है। हिरण्यकशिपु भी शक्तिशाली था, अपनी तपस्या से उसने वरदान प्राप्त किया था कि उसे कोई मनुष्य अथवा पशु न मार सके, न किसी अस्त्र से न किसी शस्त्र से, न दिन में न रात्रि में, न अन्दर न बाहर, न जमीन पर न आकाश में। यह सब वरदान प्राप्त करने के बाद भी उसका अहंकार समाप्त नहीं हुआ अपितु और बढ़ गया। अब वह स्वयं को ईश्वर मानने लगा। उसने अपने राज्य में घोषणा कर दी कि उसकी ही पूजा हो, अन्य किसी की नहीं। जो भी भगवान् विष्णु की पूजा करेगा उसको मृत्युदण्ड मिलेगा। संयोगवश उसका स्वयं का पुत्र प्रह्लाद ही भगवान विष्णु का परम् भक्त निकला। प्रह्लाद विष्णु की भक्ति में इतना तल्लीन हो गया कि उसे ईश्वर भक्ति के अतिरिक्त सब कुछ व्यर्थ लगने लगा। यह सब हिरण्यकशिपु बर्दाश्त नहीं कर सका। उसने प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया परन्तु प्रह्लाद ने भगवान् विष्णु की भक्ति को छोड़ने से इन्कार कर दिया। इस पर भक्त प्रह्लाद पर अत्याचार प्रारम्भ हुए। अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए अन्त में भगवान् विष्णु को अपने वरदान की सुरक्षा के साथ ही हिरण्यकशिपु के वध् के लिए नृसिंह के रूप में अवतरित होना पड़ा। श्री विष्णु का यह चतुर्थ अवतार सृष्टि के क्रमिक विकास का अनुक्रम भी है। होली का पर्व जिस उत्साह एवं उमंग के साथ हिन्दू जनमानस मनाता है, वह अपने आप में बड़ा सुखद एवं जीवन की नूतन अनुभूति कराने वाला भी है। भक्ति जब भी अपने विकास की उच्च अवस्था में होगी तो किसी भी प्रकार का भेदभाव, छुआछूत और अस्पृश्यता वहाँ छू भी नहीं पायेगी। प्रह्लाद की भक्ति जहाँ नृसिंह अवतार का कारण बनी, वहीं ‘‘सामाजिक समता का पर्व-होली’’ को भी इसी स्वीकृति में भारत के अन्दर जन्मी उपासना पद्धतियों के अनुयायी मनाते हैं, भक्त प्रह्लाद की भक्ति को स्मरण करते हैं, नृसिंह भगवान् की पूजा करते हैं और आपसी सद्भाव एवं समता की स्थापना करने के लिए एक-दूसरे के साथ अपनी खुशियाँ बाँटकर, गले मिलकर अपने मतभेदों को भी समाप्त करते हैं। होली जैसा पर्व हमें जोड़ने की प्रेरणा प्रदान करता है। जिस राष्ट्र में होली जैसे प्रह्लाद की महान परम्परा रही हो वहाँ छुआछूत और ऊँच-नीच के आधार पर आखिर वह समाज कैसे बँट गया? क्या यह सच नहीं कि हिन्दू समाज के आपसी विभाजन के कारण इस राष्ट्र की अतीत में भी अपूरणीय क्षति हुई है, और आज भी हो रही है? और यह भी सच है कि भगवान् नृसिंह की अवतार स्थली आज हिन्दुस्थान में नहीं है। उस पुण्य स्थली पर आज ‘‘होली’’ का यह महान पर्व नहीं मनाया जाता है। लेकिन भारत के अन्दर सभी भागों में बिना लाग-लपेट के बड़ी श्रद्धा, विश्वास एवं उत्साह के साथ यह पर्व मनाया जाता है। हम इस भाव को समझें, इसके मनाने या न मनाने के कारणों को भी जानें, तभी यह परम्परा अक्षुण्ण बनी रहेगी।
सामाजिक समता के महान पर्व- होली की हार्दिक शुभकामनाएँ !