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शिवावतारी गुरु गोरक्षनाथ का लोक-कल्याणकारी रूप:-

गुरु गोरक्षनाथ भारतीय मानस में देवाधिदेव शिव के रूप में प्रतिष्ठित हैं वह शिव से अभिन्न हैं। गोरक्षनाथ को पुराणों में शिव का अवतार माना गया है। शिव पुराण में ब्रह्मा जी शिव के अवतारों का वर्णन करते हुये कहते हैं-

अहमेवास्मि गोरक्षो, भदू्रपं तन्निबोधत । योग मार्ग प्रचाराय मया रूपमिदं धृतम् ।।

भारतीय संस्कृति में सभी प्रकार के ज्ञान के आदि स्रोत शिव ही हैं। यही शिव योग मार्ग के प्रचार के लिये ’गोरक्ष‘ के रूप में अवतरित होते हैं। योग मार्ग उतना ही प्राचीन है जितनी प्राचीन भारतीय संस्कृति है। भारतीय साधना के इतिहास में गोरक्षनाथ निश्चय ही अत्यन्त महिमामय, अलौकिक, प्रतिभा सम्पन्न, युगद्रष्टा, लोक-कल्याणरत, महातेजस्वी, ज्ञानविचक्षण महापुरुष हुए हैं जिन्होंने समस्त भारतीय तत्व चिन्तन को आत्मसात करके साधना के एक अत्यन्त निर्मल मार्ग का प्रवर्तन किया और लोक मानस में शिव रूप में प्रतिष्ठित हुए। नाथ तत्व चिरंतन है। शिव रूप गोरखनाथ देश काल की सीमा से परे हैं। भारतवर्ष में कोई ऐसा प्रदेश नहीं है जहां गोरक्षनाथ की मान्यता न हो और जहाँ के लोग सीधे उनसे अपना सम्बन्ध न जोड़ते हों। यह व्यापक स्वीकृति इस बात का प्रमाण है कि किसी समय नाथ मत अत्यन्त प्रभावशाली रहा होगा। इसकी शक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें शैव, शाक्त, जैन, बौद्ध, तंत्र, रसायन के साथ ही औपनिषदिक चिन्तन के तत्व भी विद्यमान हैं। यही नहीं वैष्णव तंत्र पर भी गोरखनाथ जी की योग साधना का स्पष्ट प्रभाव है। नाथ-योग में शक्ति-संयुक्त शिव की जो परिकल्पना है वह प्रमाणित करती है कि यह मत अत्यन्त प्राचीन है। विज्ञान के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ आज का मानव भौतिक उपलब्धियों से समृद्ध होने के बावजूद मानसिक स्तर पर कंगाल एवं दिवालिया होकर योग मार्ग की ओर उन्मुख हो रहा है। ऐसी दशा में गुरु गोरक्षनाथ के योग मार्ग को भावी विश्व के लिये आश्रय स्थल के रूप में देखा जा सकता है। नाथ पंथ की परम्परागत मान्यता के अनुसार महायोगी गुरु गोरक्षनाथ आदिनाथ शिव के अवतार हैं। अतः उनकी ऐतिहासिकता अविवेच्य है। आदिनाथ शिव और गोरक्षनाथ तत्वतः एक ही हैं। स्वानन्द विग्रह, परमानन्द स्वरूप, परम् गुरु (मत्स्येन्द्रनाथ) की कृपा से चिदानन्दायित योग विग्रह शिव गोरक्ष महायोगी गोरक्षनाथ जी भक्त पाप शमन हेतु योगामृत प्रदान करने के लिये काल खण्ड का खण्डन कर चारों युग में विद्यमान रह कर प्राणी मात्र को मोक्षपद-कैवल्यस्वरूप में अवस्थित करते रहते हैं। यह निरूपित किया गया है कि गोरक्षनाथ जी सतयुग में पंजाब में प्रकट हुए। त्रेता युग में वे गोरखपुर में अधिष्ठित थे। द्वापर में वे द्वारिका (हरमुज) में थे और कलयुग में उनका प्राकट्य सौराष्ट्र में काठियावाड़ के गोरखमढ़ी नामक स्थान में हुआ था। ऐसा विश्वास एवं मान्यता है कि नाथ योग साधना के प्रख्यात केन्द्र गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर में त्रेता युग में अश्वमेध यज्ञ के समय भगवान श्री राम ने तथा द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने गोरखनाथ जी को अपने-अपने यज्ञों में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया था। था। ’श्रीनाथ तीर्थावली’ नामक पुस्तक में उल्लेख है कि द्वापर युग में गोरखनाथ जी ने कृष्ण एवं रूक्मणी का कंकण-बंधन सिद्ध किया था। साथ ही वे राम, हनुमान, युधिष्ठिर , भीम आदि सभी धर्म एवं शक्ति के प्रतीकों के पूज्य एवं मान्य हैं उपरोक्त सभी बातों का तार्किक संकेत मात्र बस इतना है कि शिव स्वरूप होने के कारण योगिराज गोरक्षनाथ सर्वयुगीन एवं सर्वकालिक हैं। पूरे देश में गोखनाथ जी की समाधि कहीं भी नहीं मिलती है हर जगह उनकी तपःस्थली-साधना स्थली ही विद्यमान है। गोरखनाथ जी का व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति की पौराणिक चेतना मे ढल कर भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठित परम तत्व के अवतारी स्वरूपों के प्रति व्यक्त होने वाली गहरी आस्था का केन्द्र बन गया है। हिन्दू संस्कृति की समन्वयशील परम्परा अपने आराध्य देवों को कभी अलग-अलग नहीं देख सकती। आज शिवावतारी योगिराज गोरक्षनाथ विशाल हिन्दू जनता के मानस में राम-कृष्ण आदि अवतारों की ही भांति प्रतिष्ठित एवं पूज्य हैं। सन्त कबीर महायोगी गुरु गोरखनाथ के चरित्र-व्यक्तित्व एवं योग सिद्धि से इतने प्रभावित थे कि उन्हें कलि में गोरखनाथ जी की अमरता का वर्णन करना पड़ा-

’सांशी गोरखनाथ ज्यूं अमर भये कलि माहिं ’

गुरू गोक्षनाथ का नामकरण वंश परम्परागत था अथवा दीक्षागत यह कहना कठिन है। पर उनका यह ’गोरक्षनाथ‘ नाम सार्थक अवश्य था। गोरक्ष शब्द प्रायः दो अर्थों में गृहीत है। गौ-रक्षक एवं इन्द्रिय-रक्षक। गोरक्षनाथ जी का अपने इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण था यह विषय तो निर्विवाद है। साथ ही गो-रक्षक अथवा गो-सेवक के रूप में भी उनके व्यक्तित्व का परिचय मिल जाता है। अनंक किंवदन्तियां गोरक्षनाथ के गो-पालक रूप से सम्बद्ध हैं। नेपाल स्थित काठमाण्डू नगर की मृगस्थली गोरक्षनाथ जी की तपोभूमि बतलाई जाती है। मृगस्थली के सन्निकट का क्षेत्र आज भी ’गो-शाला’ नाम से सम्बोधित किया जाता है। नाथ योगी वर्तमान समय में भी गायों को मातृवत सम्मान देते हैं। नाथ मठों एवं मन्दिरों में ऐसी व्यवस्था है कि गौ के लिये नियमित रूप से ग्रास निकाल कर आदर के साथ उसे ग्रहण कराया जाता है। शिवावतारी गुरू गोरक्षनाथ की त्रेतायुग की तपःस्थली वर्तमान गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर में भी स्वदेशी गो-वंश के संरक्षण एवं संवर्धन की परम्परा काफी प्राचीन है। गोरक्षनाथ जी का तात्विक स्वरूप तो अलौकिक है ही पर एक व्यक्ति के रूप में भी उनका व्यक्तित्व मध्ययुगीन साधकों में अद्वितीय है। मध्य काल में विकृत होती हुई भारतीय साधनाओं के स्वरूप तत्वों को आत्मसात कर योग गुरू गोरक्षनाथ ने नाथ योग को नई शक्ति प्रदान की थी। बौद्ध धर्म की तांत्रिक परिणति एवं तंत्र साधना में वाममार्गीय प्रवृत्तियों के प्रवेश के बाद भारतीय साधना के क्षेत्र में अनेक विकृतियां आ गयी थीं। साधना के नाम पर साधक अनेक प्रकार के कुत्सित यौन-आचारों में प्रवृत्त हो जाते थें। मद्य-मांस, मैथुन आदि साधना के अंग बन गये थें। इस विकृति से साधकों को मुक्त करते हुये गोरक्षनाथ जी ने नाथ योगियों को राष्ट्र की नैतिक शक्ति के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर पुनः संघटित करने का अभूतपूर्व कार्य किया। उनके व्यक्तित्व में निर्भीकता, मस्ती एवं अक्खड़पन समाहित है। उन्होंने विविध तांत्रिक शैव सम्प्रदायों के भीतर लच्छित होने वाली अनेक विडम्बनाओं की निःसारता सिद्ध करते हुये उनमें अपने ढंग की समन्वयात्मक चेतना जागृत की। आचरण की शुद्धता के साथ-साथ जाति-पाति की निःसारता, बाह्याचार एवं तद्मूलक श्रेष्ठता के प्रति फटकार की भावना गोरक्षनाथ में लक्ष्य की जा सकती है।

मूरिष सभा न बैसिबा अवधू, पंडित सौ न करिबा वादं । राजा संग्रामे झूझ न करबा, हेलेसे न षोड्या नादं ।। (गो0बा0 सबदी पृ0-47)

गोरखनाथ जी ने योगी जीवन को वाद-विवाद से परे देखने का प्रयास किया। कार्य की सात्विकता और झूठ के महापाप के प्रति गोरक्ष ने चेतावनी दी है -

’जैसा करै सो तैसा पाय, झूठ बोले सो महा पापी।‘

गोरखनाथ जी का जीवन उदात्त था जिसमें सत्याचरण, ईमानदारी एवं कथनी-करनी का मेल था। योग को उन्होंने ’दया दान का मूल‘ कहा। उनका चरित्र बहुमुखी था। सामान्य जनों को संयमित जीवन व्यतीत करने का, मध्य मार्ग ग्रहण करने का तथा षीलाचरण का आदेश गोरक्षनाथ ने दिया है।

हबकि न बोलिबा ठबकि न चलिबा धीरे धरिबा पावं । गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरष रावं ।। (गो0बा0 सबदी पृ-27)

सिद्धो के वहां कामिनी का बड़ा महत्व था। गुरू गोरक्षनाथ को स्त्री के कामिनी रूप से अपार घृणा थी। उन्होंने कंचन एवं कामिनी को सर्वथा त्याज्य तथा ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक बल दिया। उनकी वाणी है कि ज्ञान ही सबसे बड़ा गुरु है। चित्त ही सबसे बड़ा चेला है। ज्ञान और चित्त का योग सिद्ध कर जीव को जगत् में अकेला रहना चाहिये। यही श्रेय अथवा आत्मकल्याण का पथ है।

ग्यान सरीखा गुरू न मिलिया, चित्त सरीखा चेला । मन सरीखा मेलू न मिलिया, तीर्थे गोरख फिरै अकेला ।।

गुरू गोरखनाथ की हठ योग साधना प्रणाली शरीर रचना के सूक्ष्म निरीक्षण तथा शरीर के अन्तर्गत प्राण एवं मानसिक शक्तियों की क्रियाशीलता के नियमों पर आधारित है। वस्तुतः गोरखनाथ जी के हठयोग का लक्ष्य प्राणशक्ति और मनोशक्ति को निम्नतम भौतिक तल से परे उच्चतम आध्यात्मिक भूमि तक ले जाना है। जहां प्राण एवं मन दिव्य आत्मा के साथ एकत्व की अनुभूति करते हैं। व्यष्टि पिण्ड का पर पिण्ड पद से सामरस्य नाथयोग का प्राण तत्व है। शिव गोरक्ष महायोगी गोरखनाथ जी का दिव्य जीवन चरित्र शिव स्वरूप नाथ-योगामृत का मांगलिक पर्याय है। गोरखनाथ जी की योग दृष्टि में नाथ शिव स्वरूप हैं। महायोगी गोरखनाथ जी ने लोक-लोकान्तर के प्राणियों को सत्स्वरूप के योग ज्ञान में प्रतिष्ठित करने के लिये योग देह को धारण किया था। उन्होंने जन-जीवन को सम्बुद्ध किया कि अहंकार नश्ट कर देना चाहिये, सद्गुरू की खोज करना चाहिये और योग पंथ की योगमार्गीय साधना की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। बार-बार मनुष्य जीवन की प्राप्ति नही होती है। इसीलिये सिद्ध पुरुष के शरणागत होकर स्वसंवेद्य निरंजन तत्व का साक्षात्कार कर लेना ही श्रेयस्कर है। गोरखनाथ जी का योगदर्शन सार्वभौम है। उन्होंने बाह्य साधना- योगाभ्यास की अपेक्षा अन्तः साधना की सिद्धि पर विशेष बल दिया। उन्होंने कहा कि स्वसंवेद्य परमात्म शिव तत्व अपने ही भीतर विद्यमान हैं। वाह्य उपासना-योग साधना से स्वरूप बोध नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा कि योग ही सर्वश्रेष्ठ साधन मार्ग है। यही परम् सुख का पुण्यपद मार्ग है। यह महा सूक्ष्म ज्ञान है। इस पर चलने वाला साधक जीवनमुक्त हो जाता है।

प्राणीमात्र पर अहेतुकी कृपा करने के लिये महायोगी गुरू गोरखनाथ जी ने उन्हें कायिक, वाचिक और मानसिक अन्धकार से बाहर निकाल कर परमात्मस्वरूप का सूक्ष्मतम् दिव्य विज्ञान अत्यन्त सरल जनसाधारण की भाषा में प्रदान किया। सामान्य जनों के अलावा अनेकानेक नाथ सिद्ध योगियों एवं योग साधकों को भी महायोगी गुरू गोरखनाथ ने अपने उदात्त यौगिक चरित्र और व्यवहार तथा आचार-विचार से प्रभावित किया। ऐसे योगियों में योगिराज भर्तृहरि, गौड़ बंगाल के गोपीचन्द, उड़ीसा के मल्लिकानाथ, महाराष्ट्र के गहनिनाथ, पंजाब के चौरंगीनाथ, राजस्थान के गोगा पीर और उत्तरांचल के हाजी रतन नाथ आदि के नाम अग्रगण्य हैं। इन योग सिद्धों ने गोरक्षनाथ जी के सदुपदेशामृत और अलौकिक दिव्य चरित से स्वरूप-बोध प्राप्त किया। भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रदेशों में गोरखनाथ जी के प्रभावी व्यक्तित्व का दर्शन होता है। नेपाल में तो वे पूरे राष्ट्र के गुरू पद पर अत्यन्त प्राचीन काल से सम्मानित एवं पूजित हैं। गोरखनाथ जी ने लोक मंगल की भावना को अपने दृष्टि मे रख कर सुख-दुख और मुक्ति का अपनी वाणी में बड़ा मार्मिक निरूपण किया है कि जो इस शरीर में सुख है वही स्वर्ग है- आनन्द भोग है। जो दुख है वहीं नरक है अथवा अशुभ कर्मों की नारकीय यातना है। सकाम कर्म ही बन्धन है, संकल्प रहित अथवा निर्विकल्प हो जाने पर मुक्ति सहज सिद्ध है।

यत्सुखं तत्स्वर्ग, यद् दुःखं तन्नरकं, यत्कर्म तद् बन्धनं यन्निर्विकल्पं तन्मुक्तिः । (सिद्धसिद्धान्त पद्धति 3/13)

गोरक्षोपदिष्ट मार्ग वह योग मार्ग है जिस पर चल कर संकीर्ण सम्प्रदायगत मनोवृत्तियों को समाप्त कर वृहद् मानव समाज का निर्माण किया जा सकता है। मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने ग्रन्थ 'पद्मावत' में यहां तक कह दिया है कि योगी तभी सिद्धि प्राप्त कर सकता है जब वह (अमरकाय) गोरख का दर्शन पाता है। गोरक्षनाथ से उसकी भेंट होती है।

बिनु गुरू पंथ न पाइये, भूलै से जो भेंट । जोगी सिद्ध होई तब, जब गोरख सौं भेंट ।। (पद्मावत-217)

गोरखनाथ जी ने योग शास्त्र विहित (ईश्वर प्राणिधान) भगवद् भक्ति का योग की साधना के परिपेक्ष में अत्यन्त श्रेयस्कर प्रतिपादन किया। गोस्वामी तुलसीदास ने कवितावली रामायण (उत्तरकाण्ड-84) में गोरखनाथ जी के योग का महत्व प्रकाशित करते हुये कहा है कि-

गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग । निगम नियोग तें सो कलि ही छरो-सो है ।।

अध्यात्म के उच्च शिखर पर आरूढ़ होते हुये भी शिवावतारी गुरु गोरक्षनाथ जी अपनी योग-देह से कथनी-करनी की एकता, कनक-कामिनी के भोग, त्याग, ज्ञान-निष्ठा, वाक् संयम, ब्रह्मचर्य, मनोशरीर-शुद्धि, संग्रह-प्रवृत्ति की उपेक्षा, क्षमा, दया, दान आदि की कंचन वर्ण दिव्य किरणों से लोक-समाज के कल्याणमय जीवन को युगों-युगों से अनुप्राणित करते रहते हैं। गोरक्षनाथ जी के धर्म की प्रधान विशेषता है इसकी सर्वजनीनता। इस धर्म का द्वार सबके लिये खुला है। गोरक्षनाथ जी अमर-काय है। उनका नाथ योग सनातन है। उनका वचन साक्षात् वेद है।