ऊँ नमो भगवते गोरक्षनाथाय | धर्मो रक्षति रक्षितः | श्री गोरक्षनाथो विजयतेतराम | यतो धर्मस्ततो जयः |     Helpline 24/7: 0551-2255453, 54 | योग-वाणी

विद्वानों के मत

सनातन वैदिक हिन्दूधर्म के अन्तर्गत प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों में नाथ सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण स्थान है। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक महायोगी गुरु श्री गोरक्षनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य तथा भगवान आदिनाथ के प्रशिष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। अभी तक इन महान सन्त का जन्म स्थान और समय आधुनिक विद्वानों द्वारा निर्विवाद रूप से निर्धारित नहीं किया जा सका है। नाथ सम्प्रदाय गुरु श्री गोरक्षनाथ को अमर अजर योगी मानता है। सम्प्रदाय में आस्था रखने वाले प्रत्येक भक्त गुरु श्री गोरक्षनाथ की उपस्थिति सतयुग, त्रेता, द्वापर, और कलियुग में मानते हैं।

कबीर दास जी :- ने गुरु श्री गोरक्षनाथ के प्रति स्पष्ट निष्ठा व्यक्त किया है। अपने एक पद में उन्होंने कहा है कि सनक, सनेदन, जयदेव, नामदेव, सबने भक्ति साधना की किन्तु भीतर निहित ‘मन’ की गति को नहीं समझा। गोरक्षनाथ, भरथरी और गोपीचन्द ने इस मन को स्थिर कर आनन्द की अनुभूति की थी।

ता मन कौं खोजहु रे भाई। तन छूटे मन कहाँ समाई।।
सनक सनंदन जैदेउ नांमां। भगति करी मन उनहुं न जांनां।
सिव विरंचि नारद मुनि ग्यानी। मन की गति उनहूं नहिं जानी।
धरा प्रहलाद विभीखन सेखा। तन भीतर मन उनहूं न पेखा।
ता मन का कोई जानै न भेउ। ता मनि लीन भया सुखदेउ।
गोरख भरथरी गोपी चंदा। ता मन सौं मिलि करैं अनंदा।
अकल निरंजन सकल सरीरा। ता मन सौं मिलि रह्यौ कबीरा।

यही नहीं, कहीं-कहीं तो कबीर ने गुरु श्री गोरक्षनाथ जी के कथनों को थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया है। गोरख बानी के एक पद में कहा गया है कि तत्त्व रूपी बेलि को गोरक्षनाथ जानते हैं। इस बेलि की न तो शाखाए है न जड़ है, न फूल है न छाया। यह बेलि बिना पानी के ही बढ़ती रहती है-

तत बेलो लो तत बेली, लो, अवधू गोरखनाथ जांणी। डाल न मूल पुहुप नहीं छाया, विरधि करै बिन पांणी।।

कबीरदास ने यही बात निम्नलिखित पद में कही है-

राम गुन बेलड़ी रे अवधू गोरषनाथि जांणी। नाति सरूप न छाया जाके, विरध करै बिन पांणी।

कबीरदास ने जिन काव्य रूपों- साखी, पद, रमैनी, बावनी, चौंतीसा, तिथि, बार, बसंत, चाँचर, हिंडोला, कहरा, बेलि, बिरहुल, विप्रभतीसी- का प्रयोग किया है, उनमें से बहुत से काव्य-रूप गोरखबानी में भी प्राप्त होते हैं। हठयोग की शब्दावली तो पूरे संत-साहित्य में नाथ-योग परंपरा से ही ग्रहण की गई है। तात्पर्य यह कि संत मत के प्रवर्तक कबीरदास स्वामी रामानंद ने उतने निकट नहीं है, जितने गुरु गोरक्षनाथ के। कबीर दास जी ने गुरु श्री गोरक्षनाथ की अमरता का वर्णन करते हुये लिखा है कि-

कामाणि अंग विरकता भया रत, भया हरि चाहि। साषी, गोरख ज्यूँ, अमर कहे काले माहि।।

नानक :-के कथनों से प्रकट है कि वे मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ की परंपरा से परिचित थे। द्वन्द्वात्मक सृष्टि से पहले तत्त्व किस रूप में विद्यमान था, इसकी ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा है-

निंदु बिंदु नही जीउ न जिंदो। ना तदि गोरखु ना माछिंदो। ना तदि गिआनु धिआनु कुल ओपति ना को गणत गणाइदा।।

गुरु नानक देव जी ने जप जी में कहा है कि ‘ब्रह्मा, विष्णु, गुरु गोरख और माता पार्वती।’

संत सुन्दरदास ने ‘ज्ञान समुद्र’ और ‘सर्वाग योग’ इन दो ग्रंथों में योग साधना का विस्तृत वर्णन किया है। हठयोग के पूर्वाचार्यों का उल्लेख करते हुये आपने लिखा है-

आदिनाथ मत्स्येन्द्र अरु गोरष चर्पट मीन। काणेरी चौरंग पुनि हठ सुयोग इनि कीन।।

संत मलूकदास:- ने ‘सतगुरु’ के तत्त्व को जानने वाले विरले साधकों का उल्लेख करते हुये अवधूत योगी गोरक्षनाथ का उल्लेख किया है। वे कहते हैं-

हमारा सतगुरु विरले जाने। सुई के नोक सुमेर चलावै, सो यह रूप बखाने।।
की तौ जानै दास कबीरा, की हरिनाकुस पूता।
की तौ नामदेव औ नानक की गोरख अवधूता।।

आचार्य रजनीश :- आपके प्रवचन का आरम्भ ही गोरखवाणी से होता था। आपके मतानुसार ‘भारत के धर्म-आकाश के चार महत्वपूर्ण स्तम्भों में से गुरु गोरक्षनाथ एक है। जिनकी मानवता के लिए कुछ भौतिक देन है।

जार्ज गियरसन :- इनके मतानुसार गुरु गोरक्षनाथ जी के लोक जीवन का परिमार्जन स्तर उत्तरोत्तर उन्नत और समृद्ध रहा है। उन्होंने निष्पक्ष आध्यात्मिक क्रान्ति का बीजारोपण कर योग कल्पतरु की शीतल छाया से पीडित मानवता को सुरक्षित कर जो महानता प्राप्त की वह उनकी अलौकिक सिद्धि का परिचायक है।

गोस्वामी तुलसीदास जी:- ने लिखा है-

गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग निगम नियोग सों, सो केलि ही छरो सो है।।