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राष्ट्र सन्त महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज

वर्षाऋतु के पश्चात् हम वापस ऋषिकेश आ गये। ऋषिकेश में रहकर मैं योगी शान्तिनाथ द्वारा लिखित प्राच्यदर्शन समीक्षा का अध्ययन करने लगा और शान्तिनाथ जी के बारे में मेरी उत्सुकता बढ़ती गयी। योगी निवृत्तिनाथ जी ने बताया कि शान्तिनाथ जी भी योगी गम्भीरनाथ जी के ही शिष्य हैं और वे कराची से करीब 10 मील दूर एक सेठ के बागीचे में आश्रम बनाकर रहते हैं। योगी निवृत्तिनाथ जी से ही ज्ञात हुआ कि योगी शान्तिनाथ जी दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान और नाथपंथ के ज्ञाता होने के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानी भी हैं। अंग्रेजों द्वारा उन्हें ढाका षड्यन्त्र में बन्दी बनाया गया था। शान्तिनाथ जी से मिलने की मेरी उत्सुकता को देखते हुए योगी निवृत्तिनाथ जी ने योगी शान्तिनाथ जी के यहाँ जाने हेतु योजना बनायी और मुझे लेकर कराची के लिए निकल पड़े।

हम योगी शान्तिनाथ के यहाँ पहुँचे और उनके आश्रम में रहने लगे। उनके साथ भारतीय दर्शन के विविध विषयों पर गंभीर चर्चा में मेरा मन रमता गया। उसी दौरान गम्भीरनाथ जी महाराज एवं दिग्विजयनाथ जी महाराज के बारे में वे कुछ न कुछ बताया करते थे। नाथपंथ के सामाजिक क्रान्ति के विविध पक्षों ने मुझे बहुत हद तक प्रभावित किया। योग के प्रति मैं शुरू से आकर्षित था। गुरु श्री गोरक्षनाथ द्वारा प्रतिपादित ‘योग दर्शन’ और ‘गोरखवाणी’ के अध्ययन का अवसर भी मुझे शान्तिनाथ के सान्निध्य में मिला। दो योग्य संन्यासियों के सत्संग में मैं रम चुका ही था। तभी दैवी कृपा से एक घटना ने सब कुछ बदल दिया। हम जिस सेठ के बागीचे में आश्रम बनाकर रहते थे, हमारे भोजन आदि की व्यवस्था उसी सेठ के द्वारा की जाती थी। हमारे भण्डारे में तीन दिन से घी समाप्त हो गया था। सूचना पाने के बाद भी सेठ ने भण्डारे में घी नहीं भिजवाया तो हमें यह महसूस हुआ कि हम सेठ पर बोझ बन रहे हैं और सेठ हमारी भोजनादि की व्यवस्था प्रसन्न मन से नहीं कर रहा है। शान्तिनाथ जी इस घटना से बहुत दुःखी हुए और उस स्थान को छोड़ने का निर्णय ले लिया। इसी घटना से दुःखी शान्तिनाथ जी ने कहा कि गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर महन्त दिग्विजयनाथ जी ने अपने योग्य उत्तराधिकारी के लिए मुझसे कहा था। मैं पत्र लिख देता हूँ तुम वहीं चले जाओ। उसी समय निवृत्तिनाथ जी ने 1940 में गोरखपुर प्रवास के दौरान महन्त दिग्विजयनाथ जी द्वारा मुझे उत्तराधिकारी बनाने के प्रस्ताव के विषय में भी शान्तिनाथ जी से बताया। योगी शान्तिनाथ जी ने जोर देकर मुझे गोरखपुर जाने का निर्देश दिया। तब मैंने उनसे विनयवत् आग्रह किया कि महन्त दिग्विजयनाथ जी द्वारा दो वर्ष पूर्व यह प्रस्ताव किया गया था, अब तक वे हमारी प्रतीक्षा में बैठे नहीं होंगे। किसी न किसी को वे अपना उत्तराधिकारी बना चुके होंगे। मेरी बात पर योगी शान्तिनाथ जी गम्भीर हुए और उन्होंने महन्त दिग्विजयनाथ जी के पास मुझे उत्तराधिकारी बनाने का पत्र डाक द्वारा भेज दिया। पत्र पाने के बाद, जैसे कि महन्त दिग्विजयनाथ जी मेरी प्रतीक्षा में ही बैठे हों, उन्होंने मुझे गोरखपुर आने की स्वीकृति के साथ-साथ यात्रा व्यय भी भेज दिया। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि भविष्य में घटने वाले घटनाक्रमों पर उस अन्तर्यामी योगी शान्तिनाथ की दृष्टि पड़ चुकी थी। मैं इसे दैवी आदेश मानकर निवृत्तिनाथ जी के साथ गोरखपुर आया। गोरक्षनाथ मंदिर में जब मैं महन्त दिग्विजयनाथ जी के सम्मुख प्रस्तुत हुआ तो उनके मुख-मण्डल पर दिव्य आभामयी मुस्कान ने मुझे सदा-सदा के लिए उनका अपना बना दिया। मैंने मन ही मन उनको अपने गुरु के रूप में वरण किया और उनके साथ रहने लगा। उनकी मनसा-वाचा-कर्मणा में अद्भुत एकरूपता तथा हिन्दुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति पूर्ण समर्पण से युक्त विराट् व्यक्तित्व के धनी महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज के समक्ष मैं समर्पित होता चला गया।’’

नाथपंथ में दीक्षा

महन्त अवेद्यनाथ जी की कृपाल सिंह विष्ट से संन्यासी बनकर ‘अवेद्य’ बनने की वास्तविक यात्रा नाथपंथ में दीक्षा के साथ प्रारम्भ हुई। 8 फरवरी सन् 1942 ई. को गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त दिग्विजयनाथ जी द्वारा इन्हें विधिवत दीक्षा देकर अपना शिष्य एवं उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। वस्तुतः यह वर्ष भारत के स्वतंत्रता संग्राम का महत्त्वपूर्ण वर्ष था। महन्त दिविग्जयनाथ जी हिन्दू महासभा के माध्यम से आजादी की लड़ाई के एक संन्यासी योद्धा थे। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आन्दोलन की घोषणा से देशभर के आजादी के योद्धा हरकत में आ चुके थे। महन्त दिग्विजयनाथ जी भी नेपाल सहित इस सम्पूर्ण क्षेत्र में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जन-जागरण अभियान में व्यस्त रहते थे तथा जर्मनी एवं जापान की मदद से सक्रिय आजाद हिन्द फौज की सहायता कर रहे थे। परिणामतः अवेद्यनाथ जी को गोरक्षनाथ मन्दिर की व्यवस्था की पूर्ण जिम्मेवारी उठानी पड़ी। महन्त दिग्विजयनाथ जी के निर्देशन में वे गोरक्षनाथ मन्दिर से जुड़े विभिन्न धर्मस्थानों एवं संस्थानों की देख-रेख में निष्णात होते गये। महन्त दिग्विजयनाथ जी को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहने का पूरा अवसर प्राप्त हुआ। परिणामतः 1944 में गोरखपुर में हिन्दू महासभा का ऐतिहासिक अधिवेशन सम्पन्न हुआ जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी सम्मिलित हुए।