युग-पुरुष महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज
बैठने का आग्रह किया। किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। फलतः बाबा दिलवरनाथजी के गुरुभाई (महंत बलभद्र नाथ जी के शिष्य) महात्मा सुन्दरनाथजी का महंत पद पर अभिषेक किया गया। लोगों के मन में यह विश्वास बद्धमूल था कि महंत सुन्दरनाथ गद्दी के गौरव का निर्वाह करने में सफल न होंगे। सचमुच गद्दी मिलने के पश्चात महंत सुन्दरनाथ इस मंदिर की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने में असमर्थ रहे।
गोरक्षनाथ मंदिर के साधुओं और नगर के सभ्रांत लोगों ने गया में जाकर योगिराज गम्भीरनाथजी से महंत सुन्दरनाथ जी की शिकायत की। योगिराज ने अनेक बार गोरखपुर आकर परिस्थितियों को सुलझाने का प्रयास किया किन्तु बाबा सुन्दरनाथ के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
सन् 1906 में योगिराज को दूसरी बार गया से गोरखपुर लाया गया। सब लोग चाहते थे कि महंत सुन्दरनाथ को पदच्युत कर दिया जाये किंतु योगिराज ने ऐसा होने न दिया। उन्होंने एक कार्य अवश्य किया। उन्होंने महंत सुन्दरनाथ से 25 जून 1909 को एक इकरारनामा लिखवाया कि मंदिर की व्यवस्था सम्बन्धी किसी कार्य में उन्हें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, और वे किसी को दीक्षा नहीं दे सकते। उन्हें माहवारी व्यय के लिए निश्चित धनराशि मिलने लगी। योगिराज गम्भीरनाथजी उसी समय से गोरखपुर में रहने लगे। 21 मार्च 1917 को वे ब्रह्मलीन हुए। अगस्त सन् 1917 में महंत सुन्दरनाथ जी ने गोरखपुर के सब-आर्डिनेट जज की अदालत में महात्मा ब्रह्मनाथजी के विरुद्ध एक वाद प्रस्तुत किया। 15 जून 1918 को जज ने महंत सुन्दरनाथजी के पक्ष में फैसला कर दिया। 24 अक्टूबर 1918 को बाबा ब्रह्मनाथ ने जिला न्यायालय में अपील की किन्तु सफलता न मिली। उन्होंने हाई कोर्ट इलाहाबाद में अपील की। एक मार्च 1921 को पुनः बाबा ब्रह्मनाथ के विरुद्ध फैसला हुआ।
अपने गुरु बाबा ब्रह्मनाथ की पराजय से दिग्विजयनाथजी को घोर कष्ट हुआ। यद्यपि बाबा ब्रह्मनाथजी ने उन्हें विधिवत दीक्षित नहीं किया था तथापि वे उन्हें गुरु तुल्य मानते थे। मुकदमे के समय सुंदरनाथ ने उन्हें प्रलोभन देकर बाबा ब्रह्मनाथ से अलग करने का बहुत प्रयास किया, किंतु वे टस से मस न हुए। अब उन्होंने बाबा ब्रह्मनाथ जी की विजय के लिए प्रयास प्रारम्भ कर दिया। सन् 1921 में मुकदमें में पराजित हो जाने के पश्चात बाबा ब्रह्मनाथ और श्री दिग्विजयनाथ जी को गोरक्षनाथ सिद्धपीठ छोड़ देना पड़ा। बाबा ब्रह्मनाथ जी मानसरोवर (गोरखपुर) और श्री दिग्विजयनाथ जी क्षत्रिय छात्रावास में रहने लगे। 1922 में उपर्युक्त मुकदमे की अपील हाई कोर्ट में हुई यह मुकदमा अभी चल ही रहा था कि 1924 में महंत सुंदरनाथ का देहावसान हो गया। बाबा ब्रह्मनाथ जी को तुरंत बुलाया गया। वे उस समय गुजरात गये हुए थे। स्वर्गीय महंत सुंदरनाथ ने बाबा गोकुलनाथ को एक वसीयत लिखवाई कि उनका शिष्य होने के कारण वे ही गद्दी के अधिकारी होंगे, यद्यपि योगिराज गम्भीरनाथजी ने अपने जीवनकाल में ही महंत सुंदरनाथ जी से यह इकरारनामा लिखवा लिया था कि उन्हें किसी को दीक्षित करने का अधिकार नहीं है। अपने को गद्दी का वास्तविक अधिकारी प्रमाणित करने के लिए बाबा ब्रह्मनाथ ने दीवानी में दावा किया। सन् 1927 में वे विजयी घोषित हुए। बाबा गोकुलनाथ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपील की किंतु 1932 में हाई कोर्ट ने भी बाबा ब्रह्मनाथ जी के पक्ष में फैसला किया। इस तरह बाबा ब्रह्मनाथ जी सन् 1932 में गोरक्षपीठ के महंत हुए। 15 अगस्त सन् 1933 में महंत ब्रह्मनाथजी ने दिग्विजयनाथजी को विधिवत योगधर्म एवं नाथ सम्प्रदाय की दीक्षा दी। इस समय तक वे अपने पुराने नाम से ही पुकारे जाते थे।
सन् 1935 में महंत ब्रह्मनाथजी का गोलोकवास हो गया। उनके ब्रह्मलीन होने के पश्चात श्रावण पूर्णिमा के दिन 15 अगस्त सन् 1935 में पूज्य दिग्विजयनाथजी गोरक्षनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर पद पर अभिषिक्त हुए। जिस समय पूज्य महंतजी ने गोरक्षनाथ पीठाधीश्वर का उत्तरदायित्वपूर्ण पद ग्रहण किया उस समय मंदिर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। लगभग एक दशक पूर्व से निरन्तर मुकदमे की पैरवी में लगे रहने के कारण पूर्वाधिकारियों ने मंदिर की व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया था। पूज्य महंत दिग्विजयनाथ जी ने मंदिर के विकास की योजनाएं बनायी और तत्काल योजनाबद्ध रूप से इन कार्यों के सम्पादन में लग गये। मंदिर के पुनर्निर्माण और क्षेत्र-विस्तार के साथ उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और राजनितिक कार्यों का भी सफलतापूर्वक संचालन किया। उनकी कारयित्री प्रतिभा एवं समय की गतिविधियों को पहचान कर कार्य करने की अदभुत क्षमता ने दो-तीन दशकों में ही मंदिर को पूर्वाचल का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ और पर्यटन केन्द्र बना दिया। आज गोरक्षनाथ मंदिर हिन्दू संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बन गया है।