नाथ सम्प्रदाय:-
उसे शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। उसे मृत्युंजयी होना चाहिये। उसे वास्तविक दृष्टि (दर्शन) अर्थात् परमतत्त्व की मूलभूत विशिष्टताओं को समझने के लिये अन्तर्दृष्टि की उपलब्धि होनी चाहिये। उसे अज्ञान के परदे को फाड़कर निरपेक्ष सत्य की अनुभूति करनी चाहिये और उसके साथ तादात्म्य स्थापित योगियों को विभिन्न संज्ञाएँ सम्भवतः इसलिये दी गई हैं कि जिस उच्चतम आध्यात्मिक आदर्श की अनुभूति के लिये उन्होंने योग-सम्प्रदाय में प्रवेश किया है, उसकी स्मृति अनंत रूप से बनी रहे। वे किसी भी निम्न कोटि की सिद्धि, गुह्यशक्ति या दृष्टि से ही सन्तुष्ट न हों, न उसे अपनी साधना का लक्ष्य बनावें। वे चमत्कारों की ओर प्रवृत्त न हों, क्यों कि सच्चे योगी के लिये ये सर्वथा तुच्छ हैं। अपनी साधना के बीच में इस प्रकार की जो शक्ति ये प्राप्त करते हैं, वह उच्च से उच्चतर स्थितियों की उपलब्धि में आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति में, परमज्ञान और परममुक्ति, परमानन्द और परमशान्ति तथा मुक्ति या कैवल्य की अनुभूति में प्रयुक्त होनी चाहिये। यह भौतिक शरीर भी आध्यात्मिक स्पर्श के द्वारा समय और स्थान की सीमाओं से परे दिव्य बना दिया जाता है, जिसे आध्यात्मिक शब्दावली में काया-सिद्धि कहते हैं। जो योगी आत्मानुभूति की उच्चतम स्थिति तक पहुँच जाता है, सामान्यतः अवधूत कहलाता है। अवधूत से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जो प्रकृति के सभी विकारों का अतिक्रमण कर जाता है, जो प्रकृति की शक्तियों और नियमों से परे है, जिसका व्यक्तित्व मलिनताओं, सीमाओं, परिवर्तनों तथा इस भौतिक जगत् के दुःखों और बन्धनों के स्पर्श से परे हो जाता है। वह जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय और राष्ट्र के भेदों से ऊपर उठ जाता है। वह किसी भी प्रकार के भय, चाह या बन्धन के बिना पूर्ण आनन्द और स्वच्छन्दता की स्थिति में विचरण करता है। उसकी आत्मा परमात्मा या भगवान शिव, विश्व के स्रष्टा, शासक और हर्ता के साथ एकाकार हो जाती है। इस सम्प्रदाय की प्रामाणिक पुस्तकों में ऐसे अनेक योगियों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें आध्यात्मिक साधना की यह भूमि प्राप्त हुई थी, जिन्होंने इस जगत् के प्राणियों के सम्मुख मानव, अस्तित्व की दैवी सम्भावनाओं का प्रदर्शन किया था। इस प्रकार का अवधूत ही सच्चे अर्थों में नाथ, सिद्ध या दर्शनी है; जब कि अन्य योगी इस स्थिति की कामना करने वाले मात्र हैं।
योगी-सम्प्रदाय के विशेष चिह्न और उनका तात्पर्य
इस सम्प्रदाय के योगी कुछ निश्चित प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, जो केवल व्यवहारगत् साम्प्रदायिक चिह्न न होकर आध्यात्मिक अर्थ भी रखते हैं। नाथ-योगी का एक प्रकट चिह्न उसके फटे हुये कान तथा उसमें पहने जाने वाले कुण्डल हैं। इस सम्प्रदाय का प्रत्येक व्यक्ति संस्कार की तीन स्थितियों से गुजरता है। तीसरी या अन्तिम स्थिति में गुरु उसके दोनों कानों के मध्यवर्ती कोमल भागों को फाड़ देता है और जब घाव भर जाता है तो उनमें दो बड़े छल्ले पहना दिये जाते हैं। यही कारण है कि इस सम्प्रदाय के योगी को सामान्यतः कनफटा योगी कहते हैं। संस्कार का यह अन्तिम रूप योगी शिष्य की सच्चाई और निष्ठा की परीक्षा प्रतीत होता है, जो इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि शिष्य अति पवित्र जीवन व्यतीत करने तथा रहस्यमय योग-साधना में पूरा समय और शक्ति देने को प्रस्तुत है। योगी के द्वारा पहना जाने वाला छल्ला ‘मुद्रा’, ‘दरसन’, ‘कुण्डल’ आदि नामों से प्रसिद्ध है। यह गुरु के प्रति शिष्य के शरीर के पूर्ण आत्मसमर्पण का प्रतीक है। इस प्रकार का आत्मसमर्पण ही शिष्य के शरीर और मनको पूर्णतः शुद्ध कर देता है। उसे समस्त अहमन्यताओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त करके इतना स्वच्छ कर देता है कि वह ब्रह्म, शिव या परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभति कर सके। आध्यात्मिक ज्योति को प्रकाशित करने वाले तथा योगियों के जीवन के आदर्श स्वरूप गुरु के प्रति इस प्रकार के पूर्ण आत्मसमर्पण का तात्पर्य शिष्य के चिन्तन की स्वच्छन्दता में बाधा पहुँचाना नहीं होता वरन् इस स्वच्छन्दता की पूर्ति करना और उसे विकसित करना होता है। अवधूत (गुरु) की पूर्ण मुक्त आत्मा के साथ एकत्व स्थापित करके अहंकारमयी प्रवृत्तियों और इच्छाओं के बन्धन से उसकी आत्मा को मुक्ति प्राप्त होती है। गोरखनाथ के उन अनुयायियों को, जिन्होंने सभी सांसारिक सम्बन्धों को त्याग दिया है और योगी-सम्प्रदाय में प्रविष्ट हो गये हैं किन्तु जिन्होंने अन्तिम दीक्षा-संस्कार के रूप में कान नहीं फड़वाया है, सामान्यतः औघड़ कहते हैं। इनकी स्थिति बीच की है। एक ओर तो सामान्य शिष्य हैं जो अभी योगी सम्प्रदाय के बाहर हैं और दूसरी और दरसनी योगी हैं, जिन्होंने सांसारिक जीवन को पूर्णतः त्याग दिया है और जब तक लक्ष्य- सिद्धि न हो जाय, योग के गुह्य साधना-मार्ग से विरत न होने का दृढ़ व्रत लिया है। यद्यपि सम्प्रदाय के औघड़ों का उतना आदर नहीं है, जितना कनफटे योगियों का, फिर भी जब तक उनमें त्याग की भावना है, जबतक वे गुरु के निर्देशों पर दृढ़ हैं और आदर्श की अनुभूति में अपने जीवन को अर्पण किये रहते हैं, तब तक योग की गुह्य साधना में उन्हें किसी प्रकार की रोक नहीं है। औघड़ तथा दर्शनी योगी ऊन का पवित्र ‘जनेव’ (उपवीत) पहनते हैं। इसी में एक छल्ला जिसे ‘पवित्री’ कहते हैं, लगा रहता है। छल्ले में एक नादी लगी रहती है जो ‘नाद’ कहलाती है और इसी के साथ रुद्राक्ष की मनिया भी रहती है। ‘नाद’ उस सतत एवं रहस्यात्मक ध्वनि का प्रतीक है, जिसे प्रणव (ऊँ) की अनाहत ध्वनि कहते हैं, जो परमतत्त्व (ब्रह्म) का ध्वन्यात्मक प्रतीक है तथा पिण्ड और ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। ...